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दर्द निवारक हो जाएँ

पंडित तेरे तन में चमक पर
मन क्यों मैला दिखता है,
कुछ तो सोच तू गहराई से
मन का मैल कहाँ बिकता है।

ऐ मौला! तू रोज़ सुबह
सीढ़ी मस्जिद की चढ़ता है,
जात धर्म के भेद दिखाकर
सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ता है।

क्यों एक जगह नहीं जा पाते
क्यों एक ही ध्यान न अपनाते,
क्यों मंदिर-मस्जिद के झगड़े
क्यों प्रीत का गीत न दौहराते।

आओ एक संगीत बनाएँ
दिशा-दिशा उसको फैलाएँ.
गाने से जिसकी भूख मिटे
सुन जिसको बच्चे मुस्काएँ।

कब तक योंही डरते-डरते
जीवन यापन करना है,
भार उठा लो कंधों पर अब
धरा को पावन करना है।

सुंदर मन हर जग का साथी
सुंदरता ही हँसती गाती
जीत यहीं पर मिल जाएगी
हर पथ में वो आती जाती।

कुछ तो ऐसा कर जाएँ हम
कोई उदाहरण बन जाएँ,
सामाजिक पीड़ा को धोकर
हम दर्द निवारक हो जाएँ।

9 सितंबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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