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दो छोटी कविताएँ

भोले चेहरे
मैं
वसंत
शब्द

समर्पित

ये राग द्वेष,
ये मन के स्पंदनों के विक्षेप -
सत्त्व रजस तमस गुणों में लिपटे
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति के वृत्त में उलझे -
संसार समुद्र की
ऊँची-ऊँची लहरों में, मुझे
पछाड़ते हैं.
क्षत-विक्षत मैं,
अकेली ही
निकल पड़ती हूँ
सुख की खोज में।
हर कहीं टकराती हूँ, स्थूल चट्टानों से।
लगता है
अंध हूँ इन उजालों में।
आखिर
थक हार कर जब
चुप्प बैठ जाती हूँ -
आँखें बंद कर लेती हूँ -
तो
बहुत धीरे से
कोई अंतरंग, परम समीप
मुझे जगाता है।
जब आँखें खुलती हैं
तब, लहरें शांत हो चुकी होती हैं।
सब कुछ
निर्मल स्पष्ट हो जाता है
जुड़ जाती हूँ सब से -
इस प्रतीति में, कि
कोई भी अलग नहीं
कुछ भी दूर नहीं
सब कुछ
यहीं है,
अभी है।

२१ जनवरी २००८

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