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तीन छोटी कविताएँ- दिशा मौत हृदय-दर्पण
समर्पित
 

कविताओं में
खुद को परखना
जीना टुकड़े टुकड़
दो छोटी कविताएँ

भोले चेहरे
मैं
वसंत
शब्द

दिशा

सुबह को शाम पचा गई
धूप को छाँह निगल गई
देह को उम्र बदल गई
हम थे कि
एक ही वृक्ष तले बैठे रहे
भूल गए कि
सूरज भी दिशा बदल चुका है।

मौत

ज़िंदगी का तेजपुँज यह
तुम्हारे सामने
एकाएक
कितना तीव्र, कितना केंद्रित हो जाता है
ऐ मौत।
और फिर
उसी क्षण में
सुख-दुःख का हर भाव
कैसा स्थिराव पा लेता है
तुमसे ऎ मौत।

हृदय दर्पण

सदियाँ बीत गईं
पर अब तक तुम समझ न पाए
तुम क्या हो।
यह कह कर कि तुमने समझा है
तुमने स्वयं को छला है
जैसे दर्पण में तुम्हारा प्रतिबिंब तुम्हें छलता है।
पूछती हूँ
क्यों नहीं किया आविष्कार अब तक
हृदय दर्पण का?

२१ जनवरी २००८

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