अनुभूति में संदीप रावत
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मुझे अफ़सोस है
हवा और धुआँ |
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पिताओं को कन्यादान करते
पिताओं को कन्यादान करते देखते हुए
मेरे चारों तरफ
बच्चियाँ खिलखिला उठीं
और बारातियों के उत्साह में
उदास हो गयीं लड़कियाँ
दोनों से नहीं छूटती एक दूजे की मन की देहरी
जिस आँगन से उठी डोली
वहाँ
मुँडेरों पर बैठे उदास कबूतरों ने
बासी दानों पर
मूँद लीं अपनी मक्के के दानों सी
मक्कई रंग की आँखें
गली का एक भूरा पिल्ला
कूँ ..कूँ करता गेट पर आता जाता रहा
एक गाय बहुत देर तक रंभाती रही
स्नान गृह से नहीं आई भीगी भीगी सी गुनगुनाहट कोई
शहनाई की आवाज़ घर के कुछ वाद्ययंत्रों को चुप करा गई
और
जिस आँगन उतरी डोली
जुगनू चले आये ढूँढने, एक बच्चे को
अपनी टिमटिमाती आँखों से
अहाते पर धरे
पानी से भरे बर्तन में
चिड़ियों ने डूबायीं चोंचें, डुबकियाँ लीं, कूँजे भरीं
एक बिल्ली चली आई
छोड़कर, पीछे का, कबाड़ से भरा कमरा
पड़ोस के कुछ नन्हें बच्चे
चले आये अपने खिलौनों के नाम बताने-पूछने
शहनाई की आवाज़ घर में धीमी धीमी
मुस्कराहट के तार छेड़ गयी
२० जनवरी २०१४ |