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अनुभूति में संदीप रावत की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
दो कैदी
पिताओं को कन्यादान करते
मैंने दूरबीनों से
यातना
सैलानियों के मौसम
हैंग टिल डेथ

 

छंदमुक्त में-
कविता
टूटन
पत्ते

मुझे अफ़सोस है
हवा और धुआँ

  यातना

और फिर
कुछ घरों से मजबूरन निकलीं
कुछ सड़कों से भूखी उठीं
और कुछ हारकर
लौट आयीं कुओं से
वैश्यालयों की तरफ...
एक उम्र तलक
दलालों की हिफाज़त में
सभ्य लोगों के बीच
जिंदा रहीं वैश्याएँ

"दुनिया, जो वैश्यालय थी
बेहतर थी इस दुनिया से,
आह! वो ज़िस्मानी और ज़ेहनी अज़ीयत के साथ साथ
रोटी के निवाले भी गये"
भीख माँगती, बूढ़ी हो चुकी
इक वैश्या ने, दूसरी से कहा --

"अज़ब है इस जिस्म में रूह का होना
इसके लिए
मैं कभी माफ़ नहीं करुँगी
ख़ुदा को, उसकी दुनिया को"
दूजी ने कहा --

२० जनवरी २०१४

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