अनुभूति में संदीप रावत
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दो कैदी
पिताओं को कन्यादान करते
मैंने दूरबीनों से
यातना
सैलानियों के मौसम
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छंदमुक्त में-
कविता
टूटन
पत्ते
मुझे अफ़सोस है
हवा और धुआँ |
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मुझे अफ़सोस है
मेरी मुस्कान - मेरे मौन से
अपने अधरों को रंग लोगी तुम
और गुनगुनाती हुई
बिखर जाओगी मेरे भीतर दूर ...दूर तक
बो दोगी सदा के लिए...खुशबूदार हरियाली...
तुम मुझे बाहों में भरकर
बेशक़ बैठी रहो... इन बुग्यालों पर...
मगर जानाँ
इस उम्मीद में न रहना तुम
कि
हरिया जायेगी तुम्हारी भी
ज़िन्दगी इसी तरह
कि
तुम्हारे तलवों पर उगते रहेंगे
अपमान के काँटे
तुम्हारे रास्तो पर
नही ओस से भीगी दूब
मैं बस धूप का इक टुकड़ा हो सकता हूँ , जानां
मैं तुम्हारी तरह बनके सूरज
नहीं पसर सकता
अँधेरों पर ...
उन अँधेरों पर कि जिनमें
जीती आई हो तुम !!
कैसे उखाड़ पाऊँगा उन जड़ो को मैं
जिन्होंने गहरा जकड़ा है तुम्हें
मुझे अफ़सोस है
८ अप्रैल २०१३ |