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प्रेम-कथा

आधी रात के सन्नाटे में
या भीड़ भरे बाज़ार में
किसी रेल यात्रा के बीच
या ऑफिस में फाइलें देखते हुए

चुपके से
जब चाहे चली आती थी तुम
और मेरी आँखों को अपनी
नर्म उँगलियों से बंद कर
पूछती थी वह सवाल
जिसे दरकार नहीं थी
किसी जवाब की।

आजकल कैसी और कहाँ हो तुम
कोई खबर नहीं है मुझे
सच तो ये है कि
अपनी खबर भी कहाँ है
मुझे।

ज़िन्दगी एक ढलान पर है
अपने पैर जमाना ही मुश्किल है
दूसरों की खबर लेना
मुहाल है।

सूरज, चाँद, तारे
चिड़ियाँ, तितलियाँ,
फूल और पेड़
कितने सारे दोस्त हैं
जिनके घर हम
हम अक्सर मिला करते थे।
ज़माने से नहीं गया मैं
उन घरों में।
सुना है सावन और फागुन भी
आये थे इधर
पर समय न निकाल सका मैं

छुट्टी मिल गयी तो
जाऊँगा एक दिन
सबसे मिलने।
हरी घास पर लेट कर
देखूँगा जब बादलों को
नित नए रूप लेते, या
चाँदनी रात में निहारूँगा
झील के निस्तब्ध जल को
मेरी पलकों पर
फिर वही छुअन होगी
भरोसा है मुझे।

१९ मई २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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