अनुभूति में हरीश
भादानी
की रचनाएँ—
नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई
गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे
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कोई एक हवा
कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है
फिर-फिर
फिरे गई हैं आँखें रेत बिछी सी
पलकों से बूँदें अँवेर कर रखी रची सी,
हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं
तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थीं
शायद धूप चाटती सोख गई हैं
कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है
हुए पखावज
रहे बुलाते गूँगे जंगल
बज-बजती साँस हुई है राग बिलावल
भूल गया झलमलता सपना
झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी
शायद रात अँधेरा झोंक गई है
कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है !
थप-थप
पाँवों ने थापी है सड़क दूब सी
रंगती गई पुरुरवा दूर को दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा जैसे
एक सफेद कबूतर
होड़ बाज़ ही होकर
शायद डैने खोल दबोच गई है !
कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है !
२० फरवरी २०१२
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