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अनुभूति में हरीश भादानी की रचनाएँ—

नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई

गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे

 

टिक टिक बजती हुई घड़ी

टिक टिक बजती हुई घड़ी से
क्या बोले मन सुगना

चाबी भर-भर दीवारों पर
टाँगें हाथ पराये
छोटी-बड़ी सुई के पाँवों
गिनती गिनती जाए
गाँठ लगा कर कमतरियों का
बाँधे सोना जगना

पहले स्याही से उजलाई
धूप रखे सिरहाने
फिर खबरों भटके खोजी को
खीजे भेज नहाने
थाली आगे पहियों वाली
नौ की खूँटी रखना

दस की सीढ़ी चढ़ दफ़्तर में
लिखे रजिस्टर हाजर
कागज के जंगल में बैठी
आँखें चुगती आखर
एके के कहने पर होता
भुजिया मूड़ी चखना

साहब सूरज घिस चिटखाये
दाँतों की फुलझड़ियाँ
झुलसी पोरों टपटप टीपे
आदेशों की थड़ियाँ
खींच पाँच से मुचा हुआ दिन
झुकी कमर ले उठना

रुके न देखे घड़ी कभी
तन पर लदती पीड़ा
दिन कुरसी पर रात खाट पर
कुतरे भय का कीड़ा
घर से सड़क चले पुरजे की
किसने की रचना

२० फरवरी २०१२

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