कोलाहल के
आँगन!
दिन ढलते-ढलते कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
ढलते-ढलते
लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
साँकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ीआँखों को
अँसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते
१३ अक्तूबर २०१४
|