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  चिमनी
धरती से आकाश तक पहुँचने का छोटा रास्ता
यह समेट लेती है गुम हो चुकी दूरियों को अपने भीतर
इसमें भरी हुई है समय की स्मृतियाँ
क्षितिज के पार जहाँ रंग भी खो जाते हैं
दिख जाती है चिमनी
बेआवाज उगलती कुछ यह-
जिनकी छतों पर यह न लगी
वे क्या सोचते होंगे इन्हें देखते
घर बिना चिमनी वाले भी होते हैं
और कुछ बिना घर के भी जी लेते हैं जीवन-
सुबह तक मैं सोना चाहता हूँ खबरों को सुनते हुए
जिनमें नहीं होगा उल्लेख चिमनियों का
रेडियो किसी का घर होगा मैं सोचता था-
जो नहीं थकता कभी
उलीचता रहता है
मेरे भीतर सारे दिन की बटोर
इस बीच लाखों लेते हैं डुबकी संगम में
मोक्ष महाकुंभ जैसे कभी न समाप्त होता
पाप पुण्य हो जाते हैं
और कुछ क्षणों में
बदल जाता है चार सौ साल पुराना शहर
पत्थरों और चीख के टीलों में
भूकंप से बचे हुए भटकते हैं बुदबुदाते अपने आपसे भुज की ध्वस्त गलियों में-
सब जगह मृत्यु की गंध
चौंकाता हुआ आरंभ है नई सदी का
अपरिचित नग्नताओं का कोलाहल बिखरता
समय की बोरी में दाल के दानों की तरह-
अंतराल जिन्हें गिनते हुए बीता
फेंकता उन्हें गुरुत्व के परे
सुनने लगता हूँ चिमनी से आती आवाजें
जब तब झरता है हवा की सीत्कार के साथ कुछ
अँधेरे में चकनाचूर प्रतिबिम्ब-
मैं सो नहीं पाता और दिन कभी समाप्त नहीं होता
दैनंदिन कैसे संभव है मेरे बिना

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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