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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  ध्वन्यालेख तन्मयता के

ध्वनियों के भी आलेख होते हैं
जो लिखे नहीं जाते
और अमर होते हैं।

शब्द जिन्हें बाँध नहीं पाते
दृश्य जो बन नहीं पाते
पर वे होते हैं
और गूँजते हैं।

रह-रह झनझनाते हैं
हमारी अभिशप्त आत्मा को
तो भीतर का रिक्त
जैसे भर-भर जाता है।

झर-झर जाता है
गंध-प्रपात कोई।
और, आँख की तो मत पूछो
मोती ढुलकाती है।

कैसा-कैसा हो आता है मन
यहाँ-वहाँ सब जगह हो आता है
और एक मासूम-सी चुप्पी मार
समर्पित हो जाता है।

हाँ, ऐसा होता है
जब तन्मयता में होते हैं हम
और तन्मय!
कब होते हैं अब हम?

१६ जनवरी २००६

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