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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  उभरूँगा फिर

मैं फिर चहकूँगा
चिड़ियों की तरह
बाहें खोल दौडूँगा
झरते कोहरे के बीच नाचूँगा
थक कर चूर हो जाने तक
विश्वास हूँ
टूटूँगा नहीं।

यों संदर्भों के
काट दिए जाने से क्या होता है
अर्थ उनका
मुझमें ही तो जीता है
कि मैं
हर टूटन के बाद
रूपायित कर लेता हूँ
अपने को फिर से

मैं तो लहर हूँ
चट्टानों से टकरा
छार छार हो
रेत पर बिखर
विलीन हो जाना
अंत नहीं
आरंभ है मेरी यात्रा का
कि मेरा हर समर्पण
मुझे सार्थक कर जाता है।

मैं फिर दहकूँगा
ढलते सूरज की तरह
और छोडूँगा अपनी रक्ताभा
लहरों पर
पेड़ों की शाखों पर
चट्टानों से निकल
बहते झरनों पर
कि मेरी आत्मा का संगीत
घर लौटते पांखियों की मरमराहट में
विसर्जित हो
तिरोभूत हो जाएगा
काले पड़ते जल की
अथाह गहराइयों में
फिर से उतरने के लिए

१६ जनवरी २००६

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