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११. ६. २०१२

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मन के भीतर युद्ध

सूरज फिर
से हुआ लाल है

मन के भीतर ही लड़ा जाता है
हमेशा एक लंबा अनवरत युद्ध,
तब कहीं जाकर
जन्म लेता है, कोई एक महावीर,
कोई एक बुद्ध।

भीतर ही
युद्ध और भीतर ही फैली शांति
मैदानों से पूर्व भीतर होती है क्रांति
कलियुग, द्वापर,
सतयुग अथवा त्रेता हुआ
जो स्वयं से जीता है, वही विजेता हुआ

सैंकड़ो युद्ध
जीत कर भी पराजित है जो हार गया
अपने ही विरुद्ध।

मात्र सर्प ही
नहीं होते चंदनों के बीच
बोलती है खामोशी भी क्रंदनों के बीच
लहर का रूप ले
नदी की पीड़ा डोलती है
पथराई रेत भी अक्सर बहुत बोलती है

तोड़कर
तटों की सीमाएँ खोल दे मार्ग जो
अब तक रहे अवरुद्ध।

-
राजेश कुमार श्रीवास्तव

इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

नई हवा में-

लंबी गजल में-

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
गंगा दशहरे के अवसर पर

गीतों में- कुमार रवीन्द्र, अनिल कुमार मिश्र, ओम प्रकाश नौटियाल, रामशंकर वर्मा

दोहों में- कल्पना रामानी, मधु प्रधान, सुबोध श्रीवास्तव

छंदमुक्त में- मंजुल भटनागर, राजेश कुमार झा, विक्रम सिंह

मुक्तक में- अरुणा सक्सेना

हाइकु में- राजेन्द्र कांडपाल

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
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सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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