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अनुभूति में संजय ग्रोवर की रचनाएँ

नई ग़ज़लें--
उसे अपने दिल में
जब भी लोगों से मिलता हूँ
दिन हैं क्या बदलाव के
भेद क्या बाकी बचा है
मोहरा अफवाहें फैलाकर
यह जुदा इक मसअला है

अंजुमन में
असलियत के साथ
आज मुझे
आ जाएँगे
इनको बुरा लगा
उसको मैं अच्छा लगता था
क्यों करते हैं मेहनत
किस्सा नहीं हू
कोई बात हुई
ग़ज़लों में रंग
जो गया
डर में था
तितलियाँ
तीर छूटा
तुम देखना
तौबा तौबा
दर्द को इतना जिया
दासी बना के मारा
पागलों की इस कदर
बह गया मैं
बाबा
बोलता बिलकुल नहीं था
मौत की वीरानियों में
मंज़िलों की खोज में
रोज़ का उसका
लड़केवाले लड़कीवाले
लोग कैसे ज़मीं पे
सच कहता हूँ
सोचना
हो गए सब कायदे

महिला दिवस पर विशेष
स्त्री थी कि हँस रही थी
हमारी किताबों में हमारी औरतें

  दर्द को इतना जिया

दर्द को इतना जिया कि दर्द मुझसे डर गया
और फिर हँसकर के बोला यार मैं तो मर गया।

इस सदी की आस्था को देखकर मैं डर गया
बच्चे प्यासे मर गए और दूध पी पत्थर गया।

माना अमृत हो गया दो दिन समंदर का बदन
उस ज़हर का क्या करें जो आदमी में भर गया।

हिंदू भी नाराज़ मुझसे मुसलमाँ भी हैं खफ़ा
हो के इंसाँ, यार मेरे, जीते-जी मैं मर गया।

9 अप्रैल 2007

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