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अनुभूति में संजय ग्रोवर की रचनाएँ

नई ग़ज़लें--
उसे अपने दिल में
जब भी लोगों से मिलता हूँ
दिन हैं क्या बदलाव के
भेद क्या बाकी बचा है
मोहरा अफवाहें फैलाकर
यह जुदा इक मसअला है

अंजुमन में
असलियत के साथ
आज मुझे
आ जाएँगे
इनको बुरा लगा
उसको मैं अच्छा लगता था
क्यों करते हैं मेहनत
किस्सा नहीं हू
कोई बात हुई
ग़ज़लों में रंग
जो गया
डर में था
तितलियाँ
तीर छूटा
तुम देखना
तौबा तौबा
दर्द को इतना जिया
दासी बना के मारा
पागलों की इस कदर
बह गया मैं
बाबा
बोलता बिलकुल नहीं था
मौत की वीरानियों में
मंज़िलों की खोज में
रोज़ का उसका
लड़केवाले लड़कीवाले
लोग कैसे ज़मीं पे
सच कहता हूँ
सोचना
हो गए सब कायदे

महिला दिवस पर विशेष
स्त्री थी कि हँस रही थी
हमारी किताबों में हमारी औरतें

  क्यों करते हैं मेहनत

क्यों करते हैं मेहनत ये नीयत पता हो
बीमारों की असली तबीयत पता हो

तुम्हे गर मेरे सच की जुर्रत पता हो
तो आएगी किस दिन क़यामत पता हो

पिता सर पे, पलकों पे माँ को रखेंगे
बशर्ते कि उनकी वसीयत पता हो

क्या तोड़ोगे आईना, कुचलोगे चेहरा?
करोगे भी क्या गर हक़ीकत पता हो

वो इज़हारे-उल्फ़त सँभलकर करें, गर
जो है होने वाली वो ज़िल्लत पता हो

१८ मई २००९

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