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अनुभूति में संजय ग्रोवर की रचनाएँ

नई ग़ज़लें--
उसे अपने दिल में
जब भी लोगों से मिलता हूँ
दिन हैं क्या बदलाव के
भेद क्या बाकी बचा है
मोहरा अफवाहें फैलाकर
यह जुदा इक मसअला है

अंजुमन में
असलियत के साथ
आज मुझे
आ जाएँगे
इनको बुरा लगा
उसको मैं अच्छा लगता था
क्यों करते हैं मेहनत
किस्सा नहीं हू
कोई बात हुई
ग़ज़लों में रंग
जो गया
डर में था
तितलियाँ
तीर छूटा
तुम देखना
तौबा तौबा
दर्द को इतना जिया
दासी बना के मारा
पागलों की इस कदर
बह गया मैं
बाबा
बोलता बिलकुल नहीं था
मौत की वीरानियों में
मंज़िलों की खोज में
रोज़ का उसका
लड़केवाले लड़कीवाले
लोग कैसे ज़मीं पे
सच कहता हूँ
सोचना
हो गए सब कायदे

महिला दिवस पर विशेष
स्त्री थी कि हँस रही थी
हमारी किताबों में हमारी औरतें

  जब भी लोगों से मिलता हूँ

जब भी लोगों से मिलता हूँ, घर आता हूँ
सबसे ज़्यादा अपने-आप से घबराता हूँ

हकलाते-हकलाते जब खुलने लगता हूँ
जाने किस-किसको क्या-क्या कह आता हूँ

बंदर, मोहरे, बुत, स्टैच्यू... बनाने वाला
बोला मुझसे चलो तुम्हे भी समझाता हूँ

चक्कर को चिंतन कहकर वो ख़ुश हो लेंगे
एक जगह बैठे-बैठे मैं थक जाता हूँ

मेरी खिड़की में क्योंकर वो सिर देते हैं
जिन्हें शिकायत है मैं उनका सिर खाता हूँ

२५ जनवरी २०१०

 

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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