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अनुभूति में अक्षय कुमार की रचनाएँ—

छंदमुक्त में—
अंधियारे का एक पूरा युग
इनसारन और भगवान की दुनिया
उगा है कहीं सूरज
उलझी हुई गुत्थी
ऊँचे उठना चाहते हो
कल ही की बात
गलतियाँ कर के भी
गांव की बातें
ट्रेन की खिड़की
तोपों और बंदूकों से
दिवस मूर्खों का
नहीं सहा जाता
पखवारे के हर दिन
पत्थर  
पतझड़ी मौसम
परिभाषाएँ
पर्वत तो फिर पर्वत है
बुढ़ापा
राजधानी की इमारतें
स्वप्न आखिर स्वप्न
सच क्या है

  नहीं सहा जाता

नहीं,
अब और नहीं,
सहा जाता,
संबंधों का यह व्यामोह
लज्जा और सौंदर्य की
समस्त परतें उधेड़
उजागर करती हूँ,
आज मैं सत्य
हाँ, निरा सत्य

मुखौटे बदल-बदल कर
आते हो तुम मेरे पास
बार-बार
मगर हर बार
महज़ मुझे भोगने के लिए
तुम्हारा यह बलात्कारी रूप
क्षत-विक्षत कर जाता है
मेरी कोमल अन्तर्भावनाओं को
चीर डालता है
मेरे आवरण की हरियाली को

तो,
लो, देखो
उतार फेंके हैं मैंने
अपने समस्त वस्त्र
पत्थर-सी कर ली है, अपनी देह
भोगो,
कितना भोगना चाहते हो मुझे
पर,
अब नहीं मिल पाएगा तुम्हें
मेरे होठों से स्नेह का कोई प्रतिदान
नहीं बहेगी इस आँचल से
जीवनदायिनी दूध की कोई धार
सूरज की समस्त गर्मी को
अपने अन्तस तक उतार
भभक उठेगा
मेरा यह शरीर पाषाण
क्या, अब भी मुझे भोगना चाहते हो?
क्यों?
हो क्या गया तुम्हें?
क्यों खड़े हो निश्चल से चुपचाप?
क्या नहीं देखना चाहा था
बिलकुल मुझे नग्न, बिलकुल निर्विघ्न
फिर, क्या हो गया आज?
क्यों ढाँप ली हैं तुमने आँखें?
क्या, नहीं सहा जाता है सच?
हाँ
अब यह तय है
कि मेरे पास आते हो
बन जाओगे तुम राख
तुम भी रहो तो क्या फर्क पड़ता है?
भावनाओं को समझने का स्नेह को परखने का
सौंदर्य को भोगने का
समस्त अधिकार खो दिया है
तुमने,
भूख तुम्हारी नियति है
प्यास तुम्हारा भविष्य।

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