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जिंदगी

जिंदगी जुड़ती नहीं
ठहरती नहीं, बदल जाती है
साफ़ कितना भी करो
पर काँच, धुँधला जाती है
अस्पष्ट सा चेहरा गुनने लगता है
तुम्हारा निस्पंद स्पर्श

ये जंगल सरीखा स्वप्न और तुम्हारा
विस्तार लेता लहरों का रेला
सागर के तट पर
और वह
केकड़े का पानी की ओर भागना
वह प्यास वह आस, जीवन जी पाने का उल्लास
गर तुम चुन पाते
भर पाते सासों में जीवन का नमक... खारा

सब ने चुन लिया था
हिस्से का नमक
बचे रहे हम धुँधलाते शाम के उस हिस्से पर
जब बगुले लौटे हैं सुदूर
अपने डेरों पर
उदास सी शाम पुकारती है हमें
चल कबीरा
नमक ही नमक बचा है बन जहर

कहाँ गवाँ आये तुम्हारा
ढाई आखर

२२ दिसंबर २०१४

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