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  बस्ती की बेटी

एक दुनिया में
सदा से बसती आई हैं दो बस्तियाँ
एक मुफ़लिस की है बस्ती
तो दूजी कोठी की गलियाँ
एक खुश है
अभावों में जीकर भी
दूजे को शिकायत है
हर बात के होने पर भी
वो नहीं जानती
पढ़ लिख के क्या बनेगी वो
चाँदी के चम्मच वाले मुँहों से
कैसे लड़ेगी वो
खूबसूरत है
बेलौस, बग़ावत में वो
है शमा घर की
मगर रौशन दुनिया को
क्या कर सकेगी वो
जो मिल जाये थोड़ी सी राह
तो क्या नहीं कर सकती
है वो उस बस्ती की बेटी
जो दूसरी दुनिया में है
मगर उन आँखों में ख्वाब
तीसरी दुनिया के हैं
है वो उम्मीद आने वाले कल की
देखना तुम कहीं दफन न हो जायें
कैक्टस के ये फूल
क्योंकि खिलते नहीं ये रोज़ रोज़
खिलते हैं ये कभी कभी
हजारों बरस की ग़ुलामी के बाद।

१ जुलाई २०१७
 

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