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अपनी चुप्पी को
जब हम खामोशी समझ लेते हैं
सारी दुनिया के सहारे
बिम्ब नया गढ़ लेते हैं
बहुत सारी घुटन को
इकठ्ठा कर पी लेते हैं
पसरे हुए सन्नाटे को
सब ठीक समझ लेते हैं
हर जरूरी प्रश्न से
मुहं मोड़ने कि गुन्जाइश
जब कर लेते है
तब गैर जरूरी हो जाती हैं
सब क्रन्तियाँ
और मुर्दा-घर बन जाती है
यह दुनिया।

२८ नवंबर २०११
 

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