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अनुभूति में संगीता मनराल की
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मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग

 

मुट्ठी में जकड़ा वक्त

मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
बेबस- लाचार-सा
सोचता है कब आज़ाद हो
और कब उड़ चले
जो बीत गया
तारों की महफिल में
उसका क्या पछतावा
जो होगा
कहीं उस पर भी न पछताना पड़े
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
बेबस- गुलाम-सा
सोचता है
क्यों मुमकिन नहीं
क्रांति करना
आज़ादी के लिए
क्यों जकड़े रहते हैं लोग
वक्त को दोनों मुठ्ठियों में
काश वो समझ पाते
उसकी बेबसी और लाचारी
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त...

९ जुलाई २००४

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