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अनुभूति में रवींद्र स्वप्निल प्रजापति
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मेरा मन एक पृथ्वी

मेरा मन भी एक धरती है
बरसों से बह रही हैं नदियाँ
युगों से उग रहे हैं जंगल
मेरे मन में हजारों सल्तनतों का इतिहास दर्ज
यहीं है मेरी समृद्धि

मेरा मन एक संसार है हरा भरा
जहाँ हर पल नए का स्वीकार है
मेरा मन एक हरे पेड़ की जड़ से जुड़ा है
जहाँ आते रहते हैं नए पत्ते

हवा न जाने कौन सी सुगंध लेकर आती है
हाल ही में जब पानी बरसाया
हवा पर जैसे कोई पता लिखा था
सुगंध से लिखा हुआ पता
हरियालियों में नदियों न जाने किसी का पता

मैं खड़ा अपने शहर के बाहर
वही सुगंधित हवा सड़क छोड़ कर चली गई
क्यों मुझे सुगंधित हवा सड़क छोड़ कर चली गई
क्यों मुझे चलते रहना चाहिए
उस सुगंध की ओर
जिसका हर पल सुगंध को लिए था

९ मार्च २०१५


 

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