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कुछ क़तए
कुछ रुबाइयाँ
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कौन देता है कौन पाता है
गर हिम्मत हो
गीत तेरे

जड़ जिसने थी काटी
जहाँ उम्मीद हो ना मरहम की

जिस पे तेरी नज़र
झूठ को सच बनाइए साहब
तल्खियाँ दिल मे
तेरे आने की ख़बर
तोड़ना इस देश को
दिल का दरवाज़ा
दिल का मेरे
दिल के रिश्ते
नीम के फूल
पहले मन में तोल
फूल ही फूल

फूल उनके हाथ में जँचते नही
बात सचमुच
भला करता है जो
मान लूँ मै
मिलने का भरोसा
याद आए तो
याद की बरसातों में
याद भी आते क्यों हो
ये राह मुहब्बत की
लोग हसरत से हाथ मलते हैं

वो ही काशी है वो ही मक्का है
साल दर साल

` मूर्खता के दोहे

मूर्ख जो देखन मैं चला, मूर्ख ना मिलया कोय
जब देखा मैं आइना, मिल गया मूरख मोय

मूर्ख बनें तो यों बनें, जैसे गधा हजूर
ना घर का ना घाट का, पिटता बिना कसूर

काल बने सो आज बन, आज बने सो अब
जब परलय हो जाएगी, क्या मूर्ख बनेगा तब?

जो तोकू मूरख कहे, कह उसको विद्वान
तू मूरख बच जाएगा, उसकी जाए जान

आके सभी बिहार में, मूरख हो गए मौन
अब लालू वक्ता भये, उनको पूछत कौन

मूरख वाणी बोलिए, समझ न कोइ पाय
श्रोता सुन पागल बनें, वक्ता सर खुजलाय

'नीरज' भाषा मूर्ख की, कभी ना जाए व्यर्थ
सुनकर सभी लगा रहे, अपने-अपने अर्थ

24 अक्तूबर 2006

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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