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अनुभूति में महेशचंद्र द्विवेदी की
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क्षितिज! तुझमें आतुर आकाश को धरा से मिलते देखा,
बाहों में भरने के प्रयास पर, तू बन जाता है मरीचिका;
आकाश विशाल है - उसका विस्तार एवं विवेक है महान,
फिर भी, 'क्षितिज है मृगतृष्णा', वह इस सत्य से अनजान।

संध्या! तू दिवस की रात्रि से मिलन की है क्षणिक रेखा,
मानव ने तुझको युगों से हैं, इसी भाँति आते जाते देखा;
पलमात्र मिलन और फिर लम्बी रात्रि के तिमिर का वितान,
मिलन की इस क्षणभंगुरता को मानव कब पाया पहिचान।

सरिता! युववय में सागर से मिलने को हो जाती है व्याकुल,
कामिनी बन उफनती, इतराती, किनारों को ढ़ाती हो आकुल;
पर प्रियतम से मिलते ही, हो जाती है तपस्विनी सम शांत,
बिसारकर उच्छृंखलता, सागर में डूबकर कर देती प्राणांत।

प्रेम! प्रियतम को प्राप्त करने की है असह्य, अदम्य चाह,
प्राप्ति पर प्रीति का ज्वार कुछ दिन, मात्र संतोष अथाह;
याद रहे, हर-हर कर आती सागर की हर प्रचंड लहर,
किनारे से टकराते ही, क्षण में ध्वस्त हो, जाती है ठहर।

 

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