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अनुभूति में महेशचंद्र द्विवेदी की
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तुम

बिताये थे मैने दिवस, मास, वर्ष
अनजाने, अनदेखे, अनछुए तुमसे
अकस्मात मिलन की आस में।

निहारा किया था क्षितिज पार
कितने पल, प्रहर, और पावस
तुम्हारे दर्शन की प्यास में।

भटका था अँधेरी रातों में
निर्जन गली के किसी कोने में
तव आलिंगन के अहसास में।

फिरा था वन-प्रांतर, सरिता-सागर
पाने तुम्हें कम्पित वायु, दोलित लहर
उगते सूर्य के प्रकाश में।

जब से मिली हो, लगता है
रहूँ अनालस्य, अनवरत अपनाता तुम्हें
चूर-चूर हो जाऊँ प्रेम के प्रयास में।

कभी एक कमनीय कल्पना थी
अब मानवी, पर मानस की अप्सरा सम
तुम मचलती हो मन के आकाश में।

१५ दिसंबर २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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