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  कौन है बूढ़ा?

जीवन के सब रंग
देख चुका,
बैठा हूं
उम्र के आख़िरी
पड़ाव पर!
ढल चुकी
है काया
अपनों के बीच
में ही हो
गया हूं पराया।
सेवा निवृत्ति के बाद
अचानक-सा
सब बदल गया
घिरा रहने वाला
भीड़ों से
दिख रहा है आज
बिल्कुल अकेला।
वही है तन,
वही है काया
पल भर में ही
खुद को मैंने
उपेक्षित क्यों है पाया।
जटिल है स्थिति ये
समाधान की है
सिर्फ़ आस।
गूंज रहा है
प्रश्न ये,
मन में मेरे बार-बार,
क्षण भर पहले
भरा रहने वाला
अनंत ऊर्जा से
हो गया हूं
क्या मैं अब ऊर्जा हीन,
बूढ़ा, लाचार
और बेकार?
पर आज के युवाओं
में फैले इच्छाशक्ति
की थकान और
वैचारिक शिथिलता को
देखकर सोचता हूँ
कैसा है समाज
ये रूढ़ा,
कहना किसे चाहिए
और कह किसे
रहा है बूढ़ा।

24 जून 2006

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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