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नारी समानता - एक परिवर्तन

नारी समानता के इस युग में भोजन पका रहा हूँ,
दफ़्तर से लौटी बीबी के लिए चाय बना रहा हूँ।
नारी जागरण की क्रांति का शिकार हूँ,
कपड़े धोते धोते हुआ अब मैं बेहाल हूँ।
याद कर बीते दिनों को सिसकता हूँ,
नारियों के इस नये कदम से सिहर जाता हूँ।
कहीं कोई ग़लती ना हो जाए इससे बचता हूँ,
नारी उत्पीड़न का केस कर दूँगी, इस धमकी से
बहुत डरता हूँ।
चारों ओर नारी-उत्थान की चर्चा सुनता हूँ,
और अख़बारों में अब 'घरेलू पति चाहिए' का
इश्तहार देखता हूँ।

वो भी क्या दिन थे
आदेश जब हम दिया करते थे,
चाय-पकौड़ों में देरी होने पर
कितनी ज़ोर से गरजा करते थे।

नारी शक्ति के इस युग में
अब पुरुष-उत्पीड़न का केस लड़ता हूँ,
कटघरे में खड़े पुरुषों की सहमी हुई हालत को
बेबस देखता हूँ।

क्या सही है क्या ग़लत,
अभी कुछ नहीं समझ आता है,
अब तो नारियों से यही है विनती-
भूल कर पुरानी बातों को यदि वो बाँट लें
अब काम आधा-आधा,
तो होगा जीवन में दोनों के सुकून
ये है हमारा वादा।

9 अगस्त 2007

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