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संपृक्ति का नवगीत यह 
नव वर्ष है नव  
वर्ष है। 
1 
दिनमान की  
प्राचीर पर 
नव सूर्य का आतप नवल 
हर दिशा नूतन प्रभा की 
कान्ति से है  
पुण्य, निर्मल। 
1 
अब प्राण, मन, मस्तिष्क में  
नव तृप्ति का उत्कर्ष है। 
नव वर्ष है, नव  
वर्ष है। 
1 
पंछियों  
की बोलियों में 
सप्त स्वर जैसी मधुरता 
घाटियों से पर्वतों तक 
गन्धमादन की  
प्रचुरता। 
1 
सद्यःप्रसूता हर नदी 
नव हर्ष है नव हर्ष है। 
नव वर्ष है, नव  
वर्ष है। 
1 
- अवनीश त्रिपाठी  | 
                      
              
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नव प्रभात की नवल किरण 
अब डाल रही है डेरा 
नील गगन में मृदुल गान 
खग में ज्यों करे बसेरा 
 
पँखुड़ियों पर गिरती हुईं  
वो मखमल जैसी बूँदें 
थिरकी तितली बागों में 
अँखियों को अपनी मूँदे 
 
मोती मन को परख रहे 
शब्दों का डाले घेरा 
नव्य वर्ष का नवीकरण 
पंजी में हुआ घनेरा 
 
नई फसल की मादकता 
खेत खेत में झूम रही 
नई नवेली सी चाहत 
पलक छाँव में घूम रही 
 
आँख मिचौली खेल रहा  
चपल धूप संग मुँडेरा 
हर साल की भाँति आए 
रंग दीप का पगफेरा 
 
सुख की नदिया पैर रही 
दिन दुख के अब दूर हुए 
गम की आँधी चली गई 
खुशियों के संतूर हुए 
 
इस नश्वर जग में ना कुछ  
तेरा या फिर है मेरा 
नई सोच से हो शोभित 
मानव का नया सवेरा 
 
- ऋता शेखर ‘मधु’ |