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अनुभूति में दिनेश ठाकुर की रचनाएँ-

अंजुमन में-
आईने से
आँगन का ये साया
ज़ख्म़ी होठों पे
जाने दिल में
गम मेरा
ढलती शाम है
तू जबसे मेरी
थक कर
दूर तक
नई हैं हवाएँ
बदन पत्थरों के
मुकद्दर के ऐसे इशारे
मुद्दतों बाद
रूहों को तस्कीन नहीं
शीशे से क्या मिलकर आए
सुरीली ग़ज़ल
हम जितने मशहूर
हम दीवाने
हर तरफ़

हो अनजान

  नई हैं हवाएँ

नई हैं हवाएँ, नया हो गया है
मेरा ज़ख़्म फिर से हरा हो गया है।

उड़ा ले गई घोंसले टहनियों से
हवाओं को देखो तो क्या हो गया है।

शरारों की सोहबत में दिल था हमारा
जला तो बहुत पर खरा हो गया है।

न अब गोद से, न खिलौनों से मतलब
वो बच्चा भी आख़िर बड़ा हो गया है।

उफ़क़ से गिरा, खो गया रास्तों में
मेरे चाँद क्या था, तू क्या हो गया है।

तेरे रूठने का कहर गोया कम था
ज़माना भी मुझसे ख़फ़ा हो गया है।

रगे-जाँ में तस्वीर मेरी छिपाकर
तेरा रंग भी साँवला हो गया है।

मैं इल्यास से पूछना चाहता हूँ
ज़हर कैसे आबे-बक़ा हो गया है।

वो तेरे लबों का सुरीला तराना
गए मौसमों की सदा हो गया है।

सदाक़त से अब मैं भी डरने लगा हूँ
मेरा हौसला भी हवा हो गया है।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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