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  भ्रमग्रस्त जीव

ये स्वप्न, ये भूले
यह कला, यह धर्म
सब हमारी दमित इच्छाओं के
परिष्कृत स्वरूप है
सभ्य संसार के असभ्यवादियों ने
एक एक को जामा पहनाया है
जीवन जो एक उड़ता पंछी है
ख़ुद उसे पिंजरे में बंद करवाया है
तरह-तरह के पदार्थ दे कर
सुख सोचा था, दुःख पाया है
यह बची हुई पूँजी-कुंठायें
साथ रहती है इस डगर में
दिन प्रतिदिन कोष बढ़ता है
रिक्त करने की इच्छा भी
विवशता के चुंगल में फँसी हुई हैं
अजब हाल करवाया है
सोचता हूँ सर्दी में
ठिठुरने से गर्म रखना मुनासिब है
मगर जब गर्मी हो बदन में
तो भी क्या?

मन में ही अभिलाषाएँ उत्पन्न हों
मन में ही दफ़ना दी जाएँ
यह गर्भ है या कब्रिस्तान
एक दो का ज़िक्र क्या
हज़ारों को दफनाया है
फिर विचार आता है
ये दमित इच्छाएँ
कभी तो लावा उगलेंगी अपने ज्वालामुखी से
अगर किसी और को न जला सकीं
तो जला देगीं स्वयं को
किसने यह दर्पण दिखलाया है
मैं और क्या सोचूँ, मुझे नींद आती है
यह क्षणिक अधिनायकत्व
रोज़ बस यों मौत आती है
क्या दर्शन, क्या शास्त्र
किसने इन्हें बनाया है
बस सब भ्रम है छल है
और छाया है

३१ अगस्त २००९

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