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  एक हिस्सेदार से

एक सफ़र को मैं भी निकला था कुछ बरस
चलते-चलते लोग मुझे मुसाफ़िर कहने लगे
न मंज़िल का ख़्याल रहा
न कुछ अपना हाल रहा
एक कतरा-ए-आब था मैं कभी
धीरे-धीरे मिलता गया दूसरे कतरों से
लोग मुझे समंदर कहने लगे
लहर-दर-लहर साहिलों से टकराती रही
हर छाती में इक नई लहर उभर आती रही
अनजानी हवाओं से मेल जोल हुआ
लोग मुझे जादूगर कहने लगे

दरअसल मेरे पास न कोई जादू है
न लहरों जैसा दिले-बेकाबू है
मेरे पास महज़ गर्दे-सफ़र है
जो वक्ते-ज़िंदगी का अंदोख्ता है
इस में कितना तुम्हारा हिस्सा
तुम्हे तो मालूम होगा
जब हम तुम बिछुड़े थे
आख़िर घर से बेघर होना
सफ़र का दूसरा नाम ही तो है

७ अप्रैल २००८

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